सभी रसों में शृंगार की श्रेष्ठता
शृंगार रस मानव जीवन का वह मधुर, शाश्वत और सात्विक प्राण रस है जिसने प्रारम्भ से लेकर आज तक सामाजिक और नैतिक परिमिता से सुसंस्कृत होकर अनेक रूपों में मानव समाज को उल्लासमय और आनन्दमय बनाने के साथ, उसे पराक्रम एवं पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरित किया है। इस शोध-पत्र में सभी रसों शृंगार की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में भरतमुनि, आनन्दवर्धन भोज, शारदातनय इत्यादि आचार्यों के विचारों की विवेचना की गयी है तथा शृंगार रस के रसराजत्व के विभिन्न हेतुओं पर भी प्रकाश डाला गया है। प्राणिमात्र के भीतर कुछ जन्मजात मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं जिनमें काम सर्वाधिक सार्वभौम एवं व्यापक है रति और काम अपने व्यापक अर्थ में तत्वतः समानार्थी है। रति एवं काम दोनो की अन्तश्चेतना प्रेम है, जो जन्म के साथ ही मनुष्य के हृदय में अंकुरित होता है तथा जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुरूप अनेक रूपों में चरितार्थ होता रहता है। सभी रसों और उनके स्थायी भावों के मूल में भी प्रेम का ही चमत्कार परिलक्षित होता है। रति अथवा प्रेम ही शृंगार रस का स्थायी भाव है जो जड़चेतन सबमें समान रूप से व्याप्त है, उसी के अमोघ सूत्र में बँधकर सभी परस्पर मिलन की आकांक्षा से आन्दोलित हैं।