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Published By "Sri Jai Narain P.G. College, Lucknow"

0974-4118

2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
Jaya Tripathi

In a world of rapid flexibility, organisations must change their priorities from a traditional focus on planning and control to emphasise speed, innovation, flexibility, quality, service and cost. The Human Resource team has to demonstrate their commitment to meet these key business drivers. A major problem confronting Human Resource managers today is to increase line management and employee productivity, provide higher more value-adding levels of Human Resource service and internal customer responsiveness and at the same time reduce costs. What is needed is a Human Resource team that is customer-focused and market-driven in its external relations with customer and process-focused and teamoriented in its internal operations. Only such a Human Resource team can look at the way work is performed across the organisation and seek to make Human Resource processes more logical, effective and efficient. Such an effort is at the heart of Human Resource Optimisation and Process Re-engineering. Business Process Reengineering (BPR) advocates the fundamental examination and redesign of business processes, recognizing that the legacy of scientific management has been the excessive fragmentation of work practices in organisations today. This is reflected in the hierarchical structuring of organisations around functional departments, with individual and departmental goals displacing overall organizational performances. Organisational performance is a result of the effectiveness and efficiency of the actions that an organisation. Effectiveness refers to the achieved outcomes in relation to strategic objectives/goals and customer requirements. Efficiency refers to how economically the organisation's resources are utilized by an activity such as a business process that produces a given output or that delivers a given service. These two fundamental performance dimensions highlight the external and internal reasons for pursuing a specific course of action; that is, effectiveness with a primary focus on customers, and efficiency with a primary focus on internal operations and processes. The research explains the reliance of business process reengineering (BPR) in the improvement of performance in Human resource in the organization. Here, the research try to validate the significance of successful business process reengineering (BPR) process can also construct the successful organization.


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
Monika Srivastava

India is a labour surplus country with 47 million unemployed below the age of 24 years and 12-13 million youths joining the labour market every year. To avoid the growing unemployment, India strongly needs labour intensive and labour friendly industries. Labour being in the concurrent list of the constitution, both central and state government legislate on it. But the State Governments have limited space to enact labour laws to address their own requirements-promoting investment and employment generation. Labour law reform is currently on the political agenda in India, particularly in the wake of the election of the new Modijee led government at the centre. The first set of initiatives, announced in October 2014, were the “unified labour and industrial portal” and “labour inspection scheme”. Our constitution has many articles directed toward their interests for eg. Article 23 forbids forced labour, 24 forbids child labour (in factories, mines and other hazardous occupations) below age of 14 years. Further, Article 43A was inserted by 42nd amendment – directing state to take steps to ensure worker’s participation in management of industries. (Gandhi ji said that employers are trustees of interests of workers and they must ensure their welfare.) India is expected to generate 51 million jobs till 2019, it is imperative to streamline all laws, to facilitate manufacturing sector in India so as economy could absorb new human resource inflow.


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
Mohan Lal Arya ◽  
Rajkumari Singh

This research paper is a description of the Principal’s Administrative Effectiveness and his Institutional Academic Performance in the important salient aspect of School Administration and Management. The study under this division: Urban Government, Rural Government, Urban Public and Rural Public. This division is done to keep proper representation of schools from all areas whether Government or Public schools, Urban or Rural areas. It has been decided to select the final sample consists of 27 principals and 154 teachers and 8803 students. The prepared lists are useful for other categories such as Government and Public schools, urban and rural schools. Under all these categories 14 Government and 13 Public schools, 15 Urban and 12 rural schools were selected from U.P. Board and C.B.S.E. The selection of the schools indicates the selection of principals and academic performance of that school. To get data on Principal’s Administrative Effectiveness, “Administrative Effectiveness Scale” was administered on teachers of that school. All students of X and IIX classes were selected from 27 secondary and senior secondary schools for getting scores on ‘Institutional Academic Performance’. The paper finally recommended that that schools those are located in urban areas show high academic performance and rural schools keep low academic performance. The academic standards of urban schools are high then that of rural schools. It is regarded by this finding that students those are studying in urban schools perform better academic level. The students of rural schools show low academic performances.


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
नमिता निगम

शृंगार रस मानव जीवन का वह मधुर, शाश्वत और सात्विक प्राण रस है जिसने प्रारम्भ से लेकर आज तक सामाजिक और नैतिक परिमिता से सुसंस्कृत होकर अनेक रूपों में मानव समाज को उल्लासमय और आनन्दमय बनाने के साथ, उसे पराक्रम एवं पुरुषार्थ के लिए भी प्रेरित किया है। इस शोध-पत्र में सभी रसों शृंगार की श्रेष्ठता के सम्बन्ध में भरतमुनि, आनन्दवर्धन भोज, शारदातनय इत्यादि आचार्यों के विचारों की विवेचना की गयी है तथा शृंगार रस के रसराजत्व के विभिन्न हेतुओं पर भी प्रकाश डाला गया है। प्राणिमात्र के भीतर कुछ जन्मजात मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं जिनमें काम सर्वाधिक सार्वभौम एवं व्यापक है रति और काम अपने व्यापक अर्थ में तत्वतः समानार्थी है। रति एवं काम दोनो की अन्तश्चेतना प्रेम है, जो जन्म के साथ ही मनुष्य के हृदय में अंकुरित होता है तथा जीवन की अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों के अनुरूप अनेक रूपों में चरितार्थ होता रहता है। सभी रसों और उनके स्थायी भावों के मूल में भी प्रेम का ही चमत्कार परिलक्षित होता है। रति अथवा प्रेम ही शृंगार रस का स्थायी भाव है जो जड़चेतन सबमें समान रूप से व्याप्त है, उसी के अमोघ सूत्र में बँधकर सभी परस्पर मिलन की आकांक्षा से आन्दोलित हैं।


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
सविता शाही

भारतीय संविधान में महिलाओं को पुरूषों के समान ही मौलिक अधिकार प्रदान किये गये है, साथ ही वर्ग, जाति, जन्म स्थान, शैक्षणिक व सम्पत्ति के आधार पर भेदभाव व सम्पत्ति के आधार पर भेदभाव के बिना सभी नागरिकों को मताधिकार तथा राजनीतिक अधिकार भी प्रदान किये गये है। पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी पाटिल, पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रिरा गांधी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज्य, स्मृति ईरानी, पूनम महाजन, सुप्रिया फूले, उमा भारती, माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की वृंदा करात, तूलमूल कांग्रेस की नेता तथा पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जलललिता, राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे सिंधिया, दलित अधिकारों की प्रमुख प्रवक्ता और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती, दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित तथा कई राज्यों की राज्यपाल पद पर भी महिला आसीन है लेकिन कुछेक नामों को छोड़कर भारत तथा उत्तर प्रदेश का राजनीतिक पटल आज भी महिला विहीन ही है। आज के राजनीतिक प्रधान समाज में किसी भी वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बहुत मायने रखता है लेकिन दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत कम है। इस शोध पत्र के माध्यम से उत्तर प्रदेश के वर्ष 2012 के विधान सभा चुनाव से सम्बन्धित आकड़ों के विश्लेषण व समीक्षा के उपरान्त कई महत्वपूर्ण बिन्दु तथ्य मुद्दे तथा पहलु प्रकाश में आये है। 2012 का विधानसभा चुनाव मतदान के लिहाज से महिलाओं के लिए बेहतर रहा है प्रत्याशी के रूप चुनाव में खड़े होने के रूप में महिलाओं की संख्या की बात करते है तो महिलाओं और पुरूषों के बीच अन्तर की खाई बहुत ज्यादा चौड़ी हो जाती है राजनीतिक दल द्वारा 91.42ः पुरूष उम्मीदवारांे तथा 8.52ः महिला उम्मीदवारांे को चुनावी मैदान में उतारा गया राजनीतिक सहभागिता के अन्य स्तर विधानसभा में प्रतिनिधित्व की बात की जाय तो वर्ष 2012 के चुनाव में चुनावी वैतरणी पार कर विधान सभा की दहलीज पर पहुचने वाले पुरूषों की संख्या 368 थी जबकि महिलाओं की संख्या 35 रही। आधी आबादी और विधान सभा में भागीदारी सिर्फ 8.68 फीसदी। आधी आवादी की सांकेतिक भागीदारी के बाउजूद उत्तर प्रदेश में महिलाओं ने विभिन्न राजनीतिक उत्तरदायित्वों का सफलतापूर्वक निर्वहन करते हुए यह सिद्ध किया है कि राजनीति में महिलाओं को अधिक से अधिक अवसर मिलने पर वह अपने अनुभवों का लाभ उठाते हुए राज्य के राजनीतिक जीवन में प्रभावशाली व दमदार भूमिका का निर्वहन कर अन्य महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण व विकास का मार्ग प्रशस्त करेगी।


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
अमूल्य कुमार सिंह

प्रस्तुत शोध पत्र अनुभवात्मक आधार पर लिखा गया है। इस शोध पत्र का आशय स्वास्थ्य सुविधाओं पर वैश्वीकरण के प्रभाव को देखने का प्रयास किया गया है। विश्व बाजार में स्वास्थ्य के प्रभाव को परम्परागत आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक आदान-प्रदान को परम्परागत भारतीय संस्कृति के आधार पर नहीं समझा जा सकता, क्योंकि कुछ पढ़ा-लिखा तबका इसको टुकड़ांे मंे समझाने का प्रयास कर रहा है। वैश्वीकरण की जटिल प्रक्रिया के द्वारा आज हमारा निजी जीवन भी प्रभावित हो रहा है जिसे दुनिया के कई स्थानों पर परम्परागत परिवारों में स्वास्थ्य तथा लिंगीय समानता के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। बाजारवादी संस्कृति की तबाही की प्रक्रिया ने परम्परागत संस्कृति को आधुनिक संस्कृति की ओर अग्रसर किया है। ग्रामीण क्षेत्र की महिलाओं के सम्बन्ध मंे स्वास्थ्य जैसी आवश्यक आवश्यकता का प्रबन्ध किया जाना भी आवश्यक है।


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
अंजुला सक्सेना

अन्य भारतीय चिन्तन धारओं के सदृश ही काव्य का भी वैज्ञानिक अध्ययन उसी दिन से प्रारम्भ हुआ जिस दिन से मानव ने कवि का रूप प्राप्त किया, परिणामतः काव्यशास्त्र का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुतः काव्य का प्रमुख प्रयोजन प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं अपितु “सद्यः परनिर्वृतये“ (काव्यप्रकाश-प्रथमउल्लास-श्लोक-2) या रसास्वादन है। जिस प्रकार आत्मा-शरीर का जीवन धायक तत्व है, उसी प्रकार रस काव्य का जीवनधायक तत्व है। जैसे मनुष्य के शरीर में चेतन आत्मा को उस (आत्मा) में रहने वाले वीरता आदि गुण उत्कृष्ट करते हैं ठीक वैसे ही काव्यरूपी शरीर के प्राणभूत रस को उस (रस) में रहने वाले माधुर्य आदि ‘गुण’ उत्कृष्ट करते हंै। रस सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक आचार्य भरतमनि से लेकर क्रमशः सभी भारतीय आचार्यो ने ‘काव्य में गुण’ की स्थिति तथा संख्या पर अपने-अपने दृष्टिकोण से विचार किए है। भरतमुनि की दृष्टि में दोषों का विपर्यय ही ‘गुण’ है। प्रथम अलंकारशास्त्री भामह के अनुसार ‘गुण’ कात्य के प्रमुख एवं अपरिहार्य अंग हंै। आचार्य दण्डी ‘गुण’ को कात्य के शोभा विधायक धर्म मानते हंै। महनीय आचार्य वामन के मतानुसार शब्द तथा अर्थ के धर्म जो कात्य की शोभा को उत्पन्न करने हैं वे ही ‘गुण’ कहलाते हंै। अलंकार सम्प्रदाय के अनुयायी आचार्य रूद्रट ने भी अनुसरण करते हुए छः गुणों का उल्लेख किया है। ध्वनिकार आनन्दवर्धन की दृष्टि में ‘गुण’ आत्मभूत रस के धर्म हंै, शरीरभूत शब्दार्थ के नहीं। काव्य प्रकारान्तर आचार्य मम्मट स्पष्ट रूप से कहते हैं ‘गुण’ रस के धर्म हैं, वे अचलास्थिति अर्थात् नित्य है, वे रसोत्कर्ष कारक हैं विश्वनाथ आदि परवर्ती आचार्यो ने भी प्रकारान्तर से प्रायः इसी लक्षण को दोहराया है। भोज ने अपने गथ््रं ा सरस्वती कण्ठाभरण में ‘गुण’ काव्य के अभ्यन्तर गुण हैं, यह कहते हुए गुणों का वर्णन किया है। अग्निपुराण काव्य में कान्ति के आधायक धर्म को ही ‘गुण’ मानता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ‘गुण’ तथा ‘रस’ दोनों ही व्यक्ति की मनःस्थितियाँ हैं। रस व्यक्ति की वह आनन्दरूपी मनःस्थिति है जिसमें उसकी वृत्तियाँ अन्वित हो जाती हैं, यह स्थिति अखण्ड है। उसी प्रकार ‘गुण’ भी एक तरह की मनःस्थिति ही है, जिसमें कहीं चित्तवृत्तियाँ द्रवित होती हैं तो कहीं दीप्त कहीं परिव्याप्त। भारतीय आचार्यो ने गुणों की संख्या पर भी अपनी-अपनी दृष्टि से विचार किया किसी ने दस तथा किसी ने छः गुणों की कल्पना की परन्तु काव्यास्वादन की दशा में अंततः चित्त की स्थितियों द्रुति, दीप्ति तथा व्यापकत्व के आधार पर तीन ‘गुण’ ही स्वीकृत किए गए। ‘माधुर्य’ चित्त की द्रवित अवस्था है, ‘ओज’ दीप्त तथा ‘प्रसाद’ व्यापक।


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
अपूर्वा अवस्थी

जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य के अजर-अमर साहित्यकार हैं। प्रसाद जी दार्शनिक महाकवि थे, सांस्कृतिक चेतना सम्पन्न ऐतिहासिक नाटककार थे एंव जीवन की भाव सम्पदा को अभिव्यक्त करने वाले अनूठे कथाकार थे। प्रसाद जी के चिन्तन पर दर्शन के विविध आयामों का प्रभाव है। उनकी चिन्तना को सर्वाधिक प्रभावित करने का श्रेय नियतिवादी दर्षन को है। उनके काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास समग्र साहित्य पर नियतिवाद छाया हुआ है इसी साहित्य सागर में नियतिवादी सूक्तियों के अनेक मोती मिलते हैंै। चाहे ‘कामायनी‘ के ‘मनु‘ हों, या ‘अजातशत्रु‘ का ‘जीवक‘ हो या ‘स्कन्दगुप्त‘ की ‘देवसेना‘ या फिर ‘आकाशदीप‘ की ‘चम्पा‘ सभी पात्रों के संवादों में नियति सम्बन्धी सूक्तियाॅ अनुस्यूत हैं। नियतिवाद से जुड़ा इतना गहन और गम्भीर चिन्तन तथा उस चिन्तन मन्थन से उपजा सूक्ति सुभाषित नवनीत हिन्दी के किसी भी अन्य कवि अथवा साहित्यकार की रचनाओं में नहीं मिलता जैसा प्रसाद साहित्य में उपलब्ध है। प्रसाद जी को हिन्दी का प्रथम प्रौढ़ नियतिवादी साहित्यकार भी माना जा सकता है लेकिन प्रसाद के नियतिवाद का अर्थ भाग्यवाद कहीं से भी नहीं है। उनका नियतिवादी दर्शन कर्म दर्शन से परस्पर जुड़ा हुआ है और कर्म की प्रेरणा देता है।


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
नमिता दीक्षित

जिनके काव्य में प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों का मणिकांचन संयोग है ऐसे गुप्त जी के अन्दर कालानुसरण की विशेष क्षमता थी । उन्होंने अपने काव्य में मानव जीवन की विभिन्न अवस्थाओं का जीवन्त चित्रण प्रस्तुत किया है। सामाजिकता, राष्ट्र प्रेम की भावना, मर्यादावादिता, कत्र्तव्य परायणता, नारियो के उत्थान की भावना इत्यादि का पूर्ण समावेश उनके सम्पूर्ण काव्य में मिलता है। यही वो तत्व हैं जिनके कारण गुप्त जी के काव्य की प्रासंगिकता वर्तमान समय में यथावत बनी हुई है। उन्हांेने अपनी प्रत्येक रचना को मानव जीवन के हितार्थ प्रस्तुत किया तथा अपने काव्य में ईश्वर की मानवता नहीं बल्कि मानव की ईश्वरता दिखाने का प्रयास किया, वहीं उनके काव्य में सर्वत्र ‘गीता’ के कर्म दर्शन का पूर्ण परिपाक मिलता है। लोकमंगल की भावना द्वारा उन्होंने विश्वबन्धुत्व की कामना की। अतः सर्र्वे भवन्तु सुखिनः की इच्छा लिये हुये गुप्त जी का सम्पूर्ण काव्य वर्तमान समय के अंधकार को चीरने के लिये सूर्य की भांति देदीप्यमान हो रहा है। साहित्य चाहे किसी भी समय का हो यदि उसमें सामाजिक कल्याण की भावना निहित रहती है तो वर्तमान ही क्या प्रत्येक युग में ऐसे साहित्य की प्रासंगिकता बनी रहती है।


2019 ◽  
Vol 11 (02) ◽  
Author(s):  
प्रभा शंकर शुक्ल

डा0 रामजी उपाध्याय आधुनिक संस्कृत साहित्य के श्रेष्ठ विद्वान, नाटककार एवं उपन्यासकार हैं। ‘द्वा-सुपर्णा’उपन्यास में विद्वान् लेखक ने कृष्ण-सुदामा की लोकप्रिय कथा को वर्तमान सन्दर्भों में प्रस्तुत किया है। सुदामा इस कथा के नायक और उनकी पत्नी कौमुदी नायिका हैं। समाज एवम् देश के विकास मंे महिलाओं का योगदान सदैव से रहा है किन्तु आज के समय में इसकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गयी है। प्राचीनकाल में भी महिलाओं को पुरुषों के समान शिक्षा, वेदाध्ययन, शास्त्रार्थ आदि का अधिकार प्राप्त था। परिवार एवं समाज में उनका अतिशय सम्मान था। डा0 रामजी उपाध्याय ने सतत लेखन तथा अध्यापन द्वारा भारतीय संस्कृित के अतीत तपःपावन गौरव को उपायन बनाने का प्रयास किया है। कौमुदी के माध्यम से डा0 रामजी उपाध्याय ने समाज एव राष्ट्र के निर्माण मंे महिलाओं के योगदान एवं आदर्श भारतीय नारी के जीवन दर्षन को प्रकाशित किया है। कौमुदी सुशिक्षिता, जनजागरण एवं समाज-सुधार में तत्पर चिन्तनशील नारी का प्रतीक है। त्याग, करुणा, एवं प्रेम की प्रतिमूर्ति कौमुदी अपने संकल्पों एवं संस्कारों के प्रति सजग रहते हुए सामाजिक परिष्कार एवं राष्ट्र के उत्थान के लिए प्रयत्नशील है। नारी नेतृत्व में शैक्षिक उन्नयन, ग्राम सुधार एवं समाज सुधार का कार्य किया गया है। इस आख्यायिका द्वारा डा0 उपाध्याय ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक एवं राष्ट्रीय जीवन की अनेक समस्याओं को उजागर कर उन्हें दूर करने के उपाय का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है। इसमें समाज एवं राश्ट्र के निर्माण में महिलाओं के असीम योगदान तथा सामाजिक परिवर्तन, शैक्षिक उन्नयन एवं राष्ट्रीय विकास आदि में उनकी महत्ता को स्वीकार किया गया है।


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